आप भी गांधी-अम्बेडकर तुलना में दिलचस्पी लेते हैं? यदि हाँ तो मुद्दे की शुरुआत कहाँ से कर रहे हैं? मैंने जितने भी दलित एक्टिविस्ट, इतिहासकार, समाजसेवी, नेता या क्रांतिकारी इत्यादि देखे, सभी गोलमेज सम्मेलन से शुरू होते हैं यरवदा जेल होकर पूना पैक्ट पर खत्म कर देते हैं। अम्बेडकरवादियों की यही बात उन्हें तार्किक, ऐतिहासिक और राजनीतिक तीनों रूप से और कमजोर बना रही है। बाक़ी भी इसी के इर्द-गिर्द हैं।
ऐसा नहीं कह रहा हूँ कि गाँधीजी ने डॉ अंबेडकर जी की राहों में अड़चनें पैदा नहीं की। मैँ यह भी मानता हूँ कि डॉ अम्बेडकर जी से गाँधीजी बेहद असहज भी थे। लेकिन मेरा कथन यह है कि आप विषय कहाँ से उठा रहे हैं? क्योंकि जबतक आप गोलमेज सम्मेलन, पूना पैक्ट के इर्द-गिर्द रहेंगे आपका पक्ष जोगेंद्रनाथ मंडल, जिन्ना और मुस्लिम लीग की वजह से कमजोर बना रहेगा और गांधीवादी तथा अम्बेडकर विरोधी यही चाहते हैं।
इसे इसलिए समझने का प्रयास करें क्योंकि आपको नहीं मालूम कि पृथक निर्वाचन का अधिकार अंग्रेजों ने मुस्लिमों को दिया हुआ था। यह फूट डालो, राज करो कि नीति पर कार्य कर गया। जिस कारण मुस्लिम राजनीतिक रूप से सशक्त हो गए थे। इसी वजह से मुस्लिम लीग अपना प्रतिनिधित्व इतनी मजबूती से कर गयी कि वह अलग देश की न केवल वकालत कर बैठी बल्कि अलग देश तक बना दिया था।
हालांकि गोलमेज सम्मेलन के समय अलग-अलग देश की बात किसी की जुबां पर नहीं थी लेकिन इसके दुष्परिणाम सभी जानते थे। डॉ अम्बेडकर केवल सामाजिक सशक्तिकरण के लिए सेपरेट इलेक्टोरल मांग रहे थे और दुष्परिणामों को जानते हुए इससे समझौता भी कर गये। लेकिन मैँ गोलमेज सम्मेलन, सेपरेटर इलेक्टोरल की बात नहीं कर रहा हूँ। गांधी-अम्बेडकर के मध्य उभरे विषय को आपके द्वारा गलत जगह से उठाने की बात कर रहा हूँ।
इस विषय को समझने के लिए पहले आपको यह जानना, समझना जरूरी है कि ऐसी कौन-कौन सी स्थिति थी जिससे इन दोनों नेताओं को गोलमेज सम्मेलन तक अलग-अलग होकर पहुंचना पड़ा। जिसदिन आप यह समझ जाएंगे, आपकी बात मजबूती से सुनी जायेगी। मैँ आजकल इसी विषय पर अध्ययन कर रहा हूँ। मेरी नज़र में यह बात अभी तक किसी भी व्यक्ति ने नहीं बताई इसलिए मैँ वीडियोग्राफी से आपतक तथ्यात्मक बातों को पहुंचाने का प्रयत्न करूँगा।
आप अपनी बात को सच्चाई तथा तथ्यों के साथ ऐसे रखिये ताकि सब सुनें अन्यथा बात केवल दो पक्षीय हो जाती है इससे कुछ लोगों की सहमति या सहानुभूति जरूर मिल सकती है लेकिन निष्पक्ष, निष्कर्ष हेतु विषयवस्तु कमजोर ही नज़र आयेगी। यह विषय डॉ अम्बेडकर जी के पक्ष में है पर सभी ठीक से बताने में नाकाम दिखते है। फ़िलहाल के लिए यही कि भावनात्मक, तुलनात्मक नजरिया दरकिनार कीजिए अन्यथा कमजोर ही साबित होंगे। बाक़ी थोड़ा इंतज़ार कीजिए।