सत्य पर आधारित लेख अधिवक्ता हेम सिंह ठाकुर द्वारा लिखा गया है।
कुछ फडंत्री आपदा पर भी जंत्री-पत्री खोलकर दुकान सजाकर बैठ गए हैं और बकायदा जंत्री का पन्ना दिखाकर आपदा प्रभावित लोगों को डराते हुए कह रहे हैं कि ‘हमारे ज्योतिष शास्त्र में पहले ही इन घटनाओं का उल्लेख है, पाप बढ़ गया है, गऊ माता सड़कों पर है, भगवान को नहीं मान रहे, इत्यादि इत्यादि इसलिए भगवान सबको दंड दे रहे हैं। लोग-बाग भी आपदा पीड़ित व्यक्ति की मदद करने से पहले मंदिर में भगवान को बचाने पहुंच रहे हैं। अब इसे आस्था कहें या पाखंड जबकि भगवान स्वयं कहते हैं मैं कण कण में विद्यमान हूं। भगवान के कथन को माने तो हमें पहले सजीव की मदद करनी चाहिए निर्जीव तो पत्थर है उसे तो फ़ुरसत में बनाया बसाया जा सकता है। धर्मांधता धन्धा है इसमें डर भय के सिवा कुछ नहीं है और उपाय के नाम पर भगवान है जिसे कभी किसी ने देखा ही नहीं।
हमारे पहाड़ों में इसे दैवीय प्रक्रोप मानने का चलन कुछ ज्यादा ही है, यहां पर भी मठाधीश टाइप जो देवी-देवता के नाम पर सदियों से लोगों का शोषण करते आ रहे हैं, उनके अपने ही विचित्र तर्क रहते हैं ‘ फलाने मंदिर में सड़क पहुंच गई इससे देवता नाराज हैं अब हर कोई मंदिर में घुस जाता है, फलानी जगह दूसरी जात का मंदिर में घुसा जिससे देवता कुपित हो गए हैं, दूसरे गांव के लोगों ने हमारे लिए देवता बंद कर दिया इसलिए ऐसा हो रहा है।’ कुछेक तो देवता के मामले में सरकार को भी घसीटने से नहीं चूकते उनके अपने ही तर्क रहते हैं कि प्रशासन मंदिर पर कब्जा करना चाहता है इसलिए प्रलय आनी निश्चित है। मैं, ऐसे पचासों देवी-देवताओं को जानता हूं जिनके झगड़े गांव, मंदिर की चौखट से सीधे कोर्ट कचहरी पहुंचे हैं। जो देवी-देवता अपने देवलुओं के झगड़ों को नहीं निपटा सकते और जो देवलु अपने देवी-देवता की नहीं सुनते वह क्या खाक कुदरत के कहर को रोक पाएंगे?
दूसरी ओर विज्ञान शाश्वत है और उसमें उपाय भी हैं। कुछेक भौगोलिक परिस्थितियों के कारण आने वाली आपदाओं को छोड़कर 80 फीसदी आपदाएं भी मैन मेड डिसास्टर ही हैं। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो पर्यावरण संरक्षण से आपदाओं को कम किया जा सकता है। बड़ी बड़ी परियोजनाओं चाहे वह फोरलेन, एयरपोर्ट, रेलवे या बिजली प्रोजेक्ट हो इनको बनाने के लिए पहाड़ कुरेदने और नदी नालों का रूख बदलने की बजाए हमें छोटे छोटे इको फ्रेंडली प्रोजेक्ट्स पर ध्यान देना होगा। आपदा आने की स्थिति में उचित प्रबंधन से जान-माल का कम से कम नुकसान होता है। अगर उचित वैज्ञानिक प्रबंधन न होने और कुदरत से छेड़छाड़ करने पर नतीजे भयावह होते हैं जिसे हम सब आज भुगत रहे हैं शायद आगे भी भुगतते रहेंगे।
हेम सिंह ठाकुर
अधिवक्ता एवं सामाजिक कार्यकर्ता सिराज जिला मंडी
अवैज्ञानिक विकास के कारण प्रकृति का पारिस्थितिक संतुलन गड़बड़ा गया है यह बात विभिन्न प्रकार के पर्यावरणीय शोध से प्रमाणित भी हो चुकी है। अब हमने नेचर को तहस-नहस कर ही दिया है तो भविष्य में इस तरह की घटनाओं बल्कि इससे भी बुरी त्रासदी झेलने के लिए मानसिक रूप से तैयार रहना होगा। इन आपदाओं से कैसे निपटें इसके लिए ठोस कार्यनीति बनानी होगी। सरकार की नेशनल डिजास्टर रिस्पांस फोर्स (एनडीआरएफ) व स्टेट डिजास्टर रिस्पांस फोर्स (एसडीआरएफ) की तरह हमें पंचायत से लेकर गांव स्तर पर ऐसी टीम तैयार करनी चाहिए जो स्थानीय स्तर पर आने वाली आपदा आने पर तुरंत राहत बचाव कार्य करें जिससे कम से कम जान-माल का नुक़सान हो। गांव स्तर पर डिजास्टर मैनेजमेंट कमेटी बनने पर शासन व प्रशासन को सुविधा होगी। इसके अलावा डिजास्टर मैनेजमेंट जैसे विषयों को स्कूल-कॉलेजों में आवश्यक रूप से पढ़ाया जाना चाहिए ताकि हमारी आने वाली पीढ़ी आपदाओं से निपटने के लिए तैयार हो सके।
(किसी की भावनाओं को ठेस पहुंची हो तो माफ़ करना पर यह कड़वी सच्चाई है जिसपर हम अधिक समय तक आंख मूंदकर नहीं रह सकते।)